भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाई अभी देश की विधायी संस्थाओं में ठोस जगह नहीं बना पाए हैं।
वे ऑस्ट्रेलिया के समाज और अर्थव्यवस्था के अनेक क्षेत्रों में भागीदारी रखते हैं। बहुत से उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और खूब धन भी कमा रहे हैं। ज्यादातर अंग्रेजी बोलते हैं, और एक लोकतांत्रिक देश से आने के चलते लोकतंत्र में राजनीतिक प्रक्रिया की समझ भी रखते हैं।
लेकिन सफलता की ऊंचाइयां छू चुके अनेक लोगों के मौजूद होने के बावजूद यह समूह राजनीतिक नेतृत्व में ऊंचे पदों पर उस तादाद के अनुरूप नहीं पहुंच पाया है, जितना बड़ा ऑस्ट्रेलिया में इस समुदाय का आकार है।
प्रतिधिनित्व में फ़ासला
सबसे हालिया जनगणना (2016) में पता चला कि देश की कुल आबादी का 2.6 प्रतिशत, यानी लगभग 619,000 लोग भारतीय मूल के हैं। इनमें से लगभग 376,000 यानी आबादी का 1.6 प्रतिशत ऐसा है जिसने ऑस्ट्रेलिया की नागरिकता ले ली है। इन्हीं लोगों को यहां भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाई कहा गया है क्योंकि नागरिकता ऑस्ट्रेलिया में राजनीतिक पद पर पहुंचने की एक प्रमुख योग्यता है।
लेकिन भारतीय मूल के बहुत कम ऑस्ट्रेलियाई हैं जो केंद्रीय, राज्य या स्थानीय स्तर पर चुने गए हैं। 2018 में ऑस्ट्रेलियन मानवाधिकार आयोग ने एक अध्ययन में पाया कि केंद्रीय संसद के 94 फीसदी सदस्य ऐंग्लो-केल्टिक या यूरोपीय मूल के हैं।
भारतीय मूल के ऑस्ट्रलियाई लोगों का प्रतिनिधित्व तो विशेषकर कम है। प्रतिशत में देखें तो केंद्रीय संसद में 0.5 फीसदी प्रतिनिधि ही भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाई हैं। विक्टोरिया की संसद में यह तादाद 0.7 प्रतिशत है जबकि न्यू साउथ वेल्स और विक्टोरिया के स्थानीय निकायों में तो और भी कम है। फिलहाल न्यू साउथ वेल्स की संसद में उनकी स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी है जहां चुने हुए कुल प्रतिनिधियों के 1.5 प्रतिशत भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाई हैं।
क्यों है प्रतिनिधित्व में यह फ़ासला
2019 के मई से दिसंबर के बीच मैंने भारतीय मूल के आठ ऑस्ट्रेलियाइयों के साक्षात्कार किए। उनमें से कुछ ऐसे थे जो संसद में चुने गए थे जबकि कुछ असफल रहे थे। इन साक्षात्कारों के जरिए मैंने जानना चाहा कि उन्हें कैसे मौके मिले, क्या रुकावटें आईं और किन चुनौतियों का उन्हें सामना करना पड़ा। भारतीय आप्रवासी समुदाय के नौ आम लोगों और सामुदायिक नेताओं से भी मैंने बात की और देश में भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाइयों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को समझना चाहा।
मेरे इस अध्ययन में एक अहम बात जो पता चली, वह थी कि राजनीतिक दलों में उम्मीदवार के पूर्व-चुनाव की पेचीदा प्रक्रिया एक बड़ी बाधा थी।
मैंने जिन लोगों से बात की, उनमें एक अवधारणा पहले से बनी हुई थी कि समुदाय के लिए इन उम्मीदवारों का योगदान कितना भी बड़ा हो, जीती जा सकने लायक सीटों पर प्राथमिकता ऐंग्लो-केल्टिक उम्मीदवारों को दी जाती है।
‘राजनीतिक दल भारतीय-ऑस्ट्रेलियाइयों और एशियाई उम्मीदवारों को ऐसी सीटें देते हैं जहां उम्मीदवारी से फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे विपक्षी दलों की सुरक्षित सीटें होती हैं… ’ (समुदाय के एक सदस्य ने कहा)
‘क्या वे ये कह रहे हैं कि ऑस्ट्रेलिया की छवि (ऐसी) नहीं है?’ (एक उम्मीदवार ने कहा)
इसके अलावा, एक समुदाय के तौर पर, पहली और दूसरी दोनों ही पीढ़ियों के भारतीय आप्रवासियों के पास ऐसा सामाजिक और पेशेवर नेटवर्क नहीं है जो उन्हें नेताओं और राजनीतिक दलों से जोड़ सके।
‘नेताओं के नीति-सलाहकार बनाने के लिए पार्टियों के पावरब्रोकर अक्सर मेलबर्न और मोनाश यूनिवर्सिटियों से होनहार और तेज-तर्रार स्कॉलर चुन लेते हैं [..] और बाद में उन्हीं लोगों को वे पावरब्रोकर उम्मीदवार के तौर पर आगे बढ़ाते हैं।’ (भारतीय समुदाय के एक व्यक्ति ने कहा)
हालांकि भारतीय मूल के बहुत से ऑस्ट्रेलियाइयों के पास उच्च शिक्षा है लेकिन शायद ही किसी को सीधे विश्वविद्यालय से इस तरह ‘चुना’ गया हो।
समुदाय के जिन सदस्यों और नेताओँ से साक्षात्कार हुए, उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर हाल के केंद्रीय और राज्य स्तरीय चुनावों में खड़े हुए भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाई उम्मीदवारों की योग्यता की भी आलोचना की। उन्हें लगता है कि बहुत से उम्मीदवारों में एक संभावित नीति को सारगर्भित तरीके से स्पष्ट कर पाने और मीडिया व छवि प्रबंधन जैसे कौशल नहीं थे।
‘उम्मीदवारों में विशेष लक्षण होने चाहिए… लोगों से जुड़ने का कौशल, संवाद का कौशल, कूटनीति, शांत रहते हुए भी जुनूनी बने रहने की योग्यता।’ (एक सामुदायिक नेता का कहना था)
समुदाय के लोगों ने गैर-श्वेत लोगों के आप्रवासन का विरोध करने वाली पॉलीन हैन्सन की वन नेशन पार्टी से चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की भी निंदा की क्योंकि उनकी राय में ये उम्मीदवार उन मूल्यों पर ही खरा नहीं उतर पाए जो, उनके मुताबिक, समुदाय के लिए मूलभूत हैं।
प्रतिनिधित्व में इस अंतर को कैसे कम किया जा सकता है?
ब्रिटेन में 1890 के दशक में और अमेरिका में 1957 में ही भारतीय मूल के राजनेता सरकारों में चुने जा चुके थे जबकि भारतीय समुदाय की तादाद तब मामूली ही थी। लेकिन उस स्तर पर नस्ली और सांस्कृतिक विविधता को संसद में अंगीकार करने को ऑस्ट्रेलिया आज तक नजरअंदाज करता रहा है।
ऑस्ट्रेलिया के राजनीतिक दलों को चाहिए कि वेः
- ध्यान दें, कि जिस तरह महिलाओं के प्रतिनिधित्व में फ़ासले को दूर करने की कोशिश करते हैं, वैसा ही संकल्प आप्रवासी समुदायों के कम प्रतिनिधित्व के मुद्दे पर दिखाएं। राजनीतिक दलों को कनाडा के ‘प्राइम मिनिस्टर्स यूथ काउंसिल’ और अमेरिका के ‘द न्यू अमेरिकन लीडर्स प्रोजेक्ट’ जैसी योजनाओं से सबक लेने चाहिए। ऑस्ट्रेलिया की लेबर पार्टी फिलहाल पॉलिवर्सिटी नाम से एक योजना चला रही है जो सांस्कृतिक रूप से विविध नेतृत्व का समर्थन करती है।
- शुरुआत करें, ऐसी योजनाओं की, जिनके जरिए भारतीय मूल के लोगों व अन्य अल्पसंख्यक आप्रवासी समुदायों में राजनीतिक प्रतिभाओं का दायरा बढ़ सके। मसलन, राजनीतिक उम्मीदवारी के लिए संवाद का प्रशिक्षण दिया जाए।
- तैयार करें, भारतीय मूल के लोगों व अन्य अल्पसंख्यक आप्रवासी समुदायों में भविष्य की पीढ़ी की प्रतिभाओं को। भविष्य के लिए राजनीतिक उम्मीदवार तैयार करने के लिए शुरू किए गए कदमों में और संसाधनों का इस्तेमाल किया जाए।
राजनीतिक दल फेडरेशन ऑफ एथनिक कम्यूनिटीज काउंसिल ऑफ ऑस्ट्रेलिया, एथनिक कम्यूनिटीज काउंसिल ऑफ विक्टोरिया और डायवर्सिटी काउंसिल ऑफ ऑस्ट्रेलिया जैसे मौजूदा संगठनों की विशेषज्ञता का लाभ उठा सकते हैं क्योंकि ये संगठन पहले से ही विविधता और समावेश जैसे क्षेत्रों में काम कर रहे हैं।
Read the full report: Australians of Indian Origin in Politics – Interrogating the Representation Gap.
Image: Holi celebrations in Melbourne. Credit: Alam Singh/Flickr.
The English version of this article was first published on February 23, 2021.